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शनिवार, 29 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ----गंगा के गायक- -सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी ।

 


किशोरावस्था की बहुत सी स्मृतियां कौधती हैं, यादों का प्रोजेक्टर छाया डालता है- मुरादाबाद नगर में हर साल होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे में मैं उपस्थित हूँ एक सुकुमार से दिखने वाले कवि मंच संचालक द्वारा कविता पाठ के लिए आमंत्रित किये जाने पर मंथर गति से मंच पर प्रकट होते है। पंडाल में उपस्थित श्रोताओं को हास्य रस में खूब सराबोर कर अपना स्थान ग्रहण करते है। खूब तालियां बजती है, खूब वाहवाही मिलती है।

     प्रोजेक्टर अपनी छाया डालकर चुप हो जाता है। ये है मुरादाबाद के प्रसिद्ध कवि सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यद्यपि उनका निवास अधिकतर जनपद की तहसील चन्दौसी में ही रहा है किन्तु उनकी पहचान मुख्यतया मुरादाबाद के प्रमुख हास्य-कवि के रूप में ही है और 'हुल्लड़' मुरादाबादी की तरह काव्य मंच पर मुरादाबाद का प्रतिनिधित्व करते है।

    किन्तु अपने सुदीर्घ रचनाकाल में मिश्र जी ने केवल हास्य-रस की कविताएं ही नहीं रची है, काव्य की दूसरी विधाओं विशेषकर गीत को भी उन्होंने पर्याप्त समृद्ध किया है। काव्य रचना के अलावा मिश्र जी ने नाटक भी लिखे है। पुरातत्व और इतिहास पर भी उन्होंने काफी लिखा है। वे निरे कवि नहीं है बल्कि गद्य लेखन में भी खासे निष्णात हैं। सही बात तो यह है कि साहित्यकार के रूप में मिश्र जी के विविध रूप है। 'पवित्र पंवासा' शीर्षक ऐतिहासिक खण्ड-काव्य की भूमिका में प्रख्यात गीतकार शचीन्द्र भटनागर, मिश्र जी के बारे में लिखते है " श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के गीतकार, व्यंग्यकार, पुरातत्वविद, लेखक, नाटककार आदि रूपों से मेरा परिचय विगत तीस-पैतीस वर्षों में समय-समय पर होता रहा है उनकी समर्थ लेखनी जिधर मुड़ी उधर ही उसने नये प्रतिमान स्थापित कर दिए।" यूँ मिश्र जी की पहचान मुख्यतया एक व्यंग्य कवि के रूप में ही अधिक है किन्तु उनके अन्दर बैठा कवि वास्तव में तभी हमारे सामने अपनी पूरी ‘फार्म' में आता है जब वे 'पवित्र पंवासा' जैसे ऐतिहासिक खण्ड-काव्य में अपनी ओजपूर्ण भाषा में हुंकार लगाते हैं।

     "है समर प्रयाण, वीर चल पड़े,

      छोड़ के कमान तीर चल पड़े, 

      शत्रु- सैन्य थी जहाँ दहाड़ती, 

      रक्त पान को अधीर चल पड़े।

      तेग चल पड़ीं, दुधार चल पड़े, 

      ढाल चल पड़ी, कुठार चल पड़े, 

      लौह के कवच, बदन सजे हुए,

       राजपूत धारदार चल पड़े। 

       केसरी निशान हाथ में लिए, 

       आखिरी प्रयाण हाथ में लिए,

        सिंह-पूत सिंह से निकल पड़े, 

        चंचला कृपाण हाथ में लिए । "

ऐसा कौन पाठक या श्रोता होगा जिसकी शिराओं में इन पंक्तियों के अवगाहन के बाद रक्त न खौल उठे। दरअसल, मिश्र जी जब वीर रस के काव्य की रचना कर रहे होते है तब वे जाने-अनजाने मध्ययुगीन चंदवरदाई, जगनिक या भूषण जैसे कवियों की परम्परा का अनुसरण ही नहीं कर रहे होते बल्कि उनके समीप खड़े दिखाई पड़ते है। मिश्र जी कथ्य की दृष्टि से ही नहीं बल्कि यति गति, लय या छन्द की दृष्टि से भी मध्ययुगीन कवियों से कमतर नहीं है। बल्कि कहीं-कहीं तो वे वीरगाथा काल के कवियों से भी ज्यादा मौलिक और विशिष्ट दिखाई पड़ते है। वीरगाथा काल के कवियों ने जहाँ अधिकांश काव्य रचना राज्याश्रय प्राप्त करने, आजीविका चलाने या अपने स्वामी शासक को प्रसन्न करने के लिए की है वही मिश्र जी ने ऐसी किसी बाध्यता के बिना निर्द्वन्द्व भाव से साहित्य रचना की है और उन्होंने स्थानीय इतिहास, लोक कथाओं या किवदंतियों को प्रश्नय दिया है। 

    मिश्र जी उन विरले हिन्दी साहित्यकारों में से है जिन्होंने स्थानीय इतिहास, विशेषकर जनपदीय इतिहास में काफी रुचि ली है। उनके 'चरित्र काव्य' का मुख्य आधार स्थानीय इतिहास रहा है। वृन्दावन लाल वर्मा जैसे महान साहित्यकारों ने जहाँ उपन्यासों के जरिये झांसी या बुन्देलखण्ड क्षेत्र के इतिहास को उजागर किया है वहीं मिश्र जी ने गंगा या राम गंगा के तीर पर बसे प्राचीन नगरों के इतिहास को अपने साहित्य सृजन का आधार बनाया है। ऐतिहासिक कथाओं पर साहित्य रचने वाले अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों से मिश्र जी इस दृष्टि से भी बिल्कुल अलग है कि उनमें से अधिकांश ने गद्य और पद्य दोनों में से किसी एक विधा में ही साहित्य रचना की है। किन्तु मिश्र जी ने गद्य-पद्य दोनों ही विधाओं में पर्याप्त मात्रा में साहित्य रचा है। एक ओर जहाँ उन्होंने 'पवित्र पंवासा' और 'मुरादाबाद अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी' जैसी पुस्तकें काव्य में रची है वहीं 'शहीद मोती सिंह' गद्य में रचा ऐतिहासिक उपन्यास है। उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त उन्होंने "इतिहास के झरोखे से संभल' और 'मुरादाबाद का स्वतंत्रता संग्राम' जैसी कृतियां भी रची है।

    स्थानीय इतिहास या जनपदीय इतिहास को मिश्र जी के समग्र लेखन के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। दरअसल, स्थानीय इतिहास, लोककथाएं, किवंदंतियां मिश्र जी के साहित्य की 'लाइफलाइन' हैं और इनके बिना उनके साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थानीय इतिहास पर मिश्र जी का कार्य शोध के महत्व का है। अमर उजाला और दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में लिखे उनके लेखों से न केवल रोचक ऐतिहासिक जानकारियां प्राप्त होती है बल्कि अतीत को खंगालने के मिश्र जी के एकल और भगीरथ प्रयासों और भीष्म संकल्प का भी हमें ज्ञान प्राप्त होता है।

    यद्यपि मिश्र जी का इतिहास अधिकांशतया जनश्रुतियों पर आधारित है किन्तु उनका साहित्य असंदिग्ध रूप से प्रमाणित है। पंवासा के राजा कमाल सिंह और राग केसरी, कैथल के बड़गूजर, संभल के रुस्तम खाँ और शहीद मोती सिंह कोई मिथकीय या काल्पनिक पात्र नहीं है बल्कि इतिहास है। हाँ, जब मिश्र जी इस इतिहास में कल्पना का समावेश कर देते हैं तब यह अतिरंजित भले ही लगता हो किन्तु यह उत्कृष्ट साहित्य का रूप अवश्य ले लेता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि मिश्र जी का रचा साहित्य अतिरंजना है। दरअसल, इतिहास और कल्पना दो ऐसे सूत्र है जो मिश्र जी के साहित्य में कुछ इस तरह गुँथे हुए है कि उन्हें पृथक चिह्नित किया जाना संभव नहीं है।

महान अंग्रेज साहित्यकार सर वाल्टर स्काट का नाम आज विश्व साहित्य में यदि आदर के साथ लिया जाता है तो वह इसलिए कि उन्होंने अपनी कृतियों में स्काटलैंड और इंग्लैण्ड के इतिहास, समकालीन जनजीवन, लोककथाओं, लोकपरम्पराओं, किवंदंतियों को पूरी ईमानदारी और कलात्मकता के साथ दर्ज़ कर प्रस्तुत किया है। ठीक यही काम मिश्र जी भी व्यापक स्तर पर न सही क्षेत्रीय अथवा स्थानीय स्तर पर करते रहे हैं। अब यदि ऐतिहासिक कथाओं और आख्यानों के गायन के लिए विलियम शेक्सपियर को 'वार्ड आफ एवन' और सर वाल्टर स्काट को 'विजर्ड आफ द नार्थ' कहा जा सकता है तो सुरेन्द्र मोहन मिश्र को भी 'गंगा का गायक' कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य में गांगेय क्षेत्र का विशद वर्णन किया है।

   तथ्य तो यह है कि लगभग दर्जन भर कृतियों के रचनाकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी का सही आकलन आज तक नहीं किया गया है। लोग उन्हें एक हास्य कवि के रूप में ही जानते हैं। एक इतिहासकार और पुराशास्त्री के रूप में उनका आकलन किया जाना बाकी है। यह हिन्दी जगत का दुर्भाग्य है कि इतने बड़े कद के रचनाकार का समुचित मूल्यांकन तक नहीं हुआ है। यदि मिश्र जी अंग्रेजी भाषा में साहित्य रच रहे होते तो निश्चित ही उनका स्थान टामस ग्रे सरीखे कवियों के समकक्ष होता और उन पर दर्जनों शोध हो गये होते। किन्तु मिश्र जी ने इन सब बातों की कभी परवाह नहीं की है। 'एकला चलो' की तर्ज पर वे निरन्तर सृजनरत हैं और नयी पीढ़ी को तकनीक के घटाटोप से बाहर लाकर एक बार अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों यानी अपने इतिहास से जोड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं। 

( यह आलेख उस समय लिखा गया था जब श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र साहित्य साधना में रत थे )

✍️ राजीव सक्सेना

प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) 

मथुरा , उत्तर प्रदेश, भारत



शनिवार, 22 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष पंडित सुरेंद्र मोहन मिश्र पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का संस्मरणात्मक आलेख

 


क्या लिखूं.... कैसे लिखूं.... शब्द मौन हो जाते हैं... कलम रुक जाती है और स्मृति पटल पर लगभग तीस साल पहले के दृश्य एक-एक कर सजीव हो उठते हैं और मैं खो बैठता हूं अपनी सुध बुध । छात्र जीवन में देश के प्रख्यात साहित्यकारों का सान्निध्य मुझे मिलता रहा। धीरे-धीरे मेरे भीतर मुरादाबाद के साहित्य को पढ़ने की ललक पैदा हो गई और मैं मुरादाबाद के साहित्यकारों की कृतियों की खोज में लग गया। इस कार्य में महानगर के पुरातत्ववेत्ता साहित्यकार स्मृति शेष पुष्पेंद्र वर्णवाल जी ने मुझे प्रोत्साहित किया। उन्हीं दिनों स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के आलेख साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी और अमर उजाला में प्रकाशित होते थे। एक दिन अमर उजाला के रविवासरीय परिशिष्ट में स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी का आलेख मुरादाबाद के एक साहित्यकार की कृति के संदर्भ में प्रकाशित हुआ। इस आलेख में उनसे एक तथ्यात्मक भूल हो गई। वह कृति मेरे पास थी। मैंने भूल सुधार करते हुए एक पत्र अमर उजाला के संपादक राजुल माहेश्वरी जी को लिख दिया। प्रत्युत्तर में मेरे पास राजुल जी का पत्र आया जिसमें उन्होंने लिखा कि आपका पत्र सुरेंद्र मोहन मिश्र जी को भेज दिया है उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए आपका आभार व्यक्त किया है। बात आई -गई हो गई । वर्ष 1991 में मैंने मुरादाबाद के साहित्य पर प्रख्यात साहित्यकार डॉ उर्मिलेश शंखधार जी के निर्देशन में शोध कार्य करने का निर्णय लिया । शोधकार्य की रूपरेखा तैयार करते समय उन्होंने मुझसे कहा कि मुरादाबाद में मेरे गुरु सुरेंद्र मोहन मिश्र जी रहते हैं । उनके पास जाना और उनके चरण पकड़ कर बैठ जाना ।उनका आशीष अगर तुम्हें मिल गया तो समझो तुम्हारा शोध कार्य पूर्ण हो गया। इसे सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया और बार-बार राजुल जी को लिखा पत्र याद आने लगा। सुरेंद्र मोहन मिश्र जी से कैसे मिलूं.... वह मुझे अपना आशीष देंगे या नहीं । यह सोच विचार करते-करते कई माह गुजर गए । उन दिनों मैं दैनिक जागरण में कार्य कर रहा था । एक दिन गुरहट्टी चौराहा स्थित कार्यालय के नीचे खड़ा हुआ था कि मुझे श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र जी आते दिखाई दिए । मैं दौड़ कर उनके पास पहुंचा और उनके चरण स्पर्श कर अपना परिचय दिया। सुनते ही बोले- क्या तुम वही मनोज हो जिसने राजुल जी को पत्र लिखा था । सकुचाते हुए जैसे ही मैंने हां कहा... उन्होंने तुरंत मुझे सीने से लगा लिया और कहने लगे मेरी विरासत संभालने के तुम ही हकदार हो।  यह मेरा उनका प्रथम साक्षात परिचय था जो धीरे-धीरे प्रगाढ़ता में परिवर्तित हो गया और मैंने उनके घर जाकर अपना शोध कार्य पूर्ण किया। वह बड़े उत्साह से अपनी अलमारियों में से मुरादाबाद के अज्ञात साहित्यकारों की कृतियों की दुर्लभ पांडुलिपियों निकालते और उनके बारे में इमला बोलकर लिखवाते। यह क्रम कई दिन तक निरंतर चलता रहा । यही नहीं उन्होंने मेरे पूरे शोध प्रबंध को पढ़कर उसमें आवश्यक सुधार भी किए ( अपना शोध प्रबंध मैंने स्वर्गीय आचार्य क्षेम चन्द्र सुमन एवं श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र जी को ही समर्पित किया है)
 संस्मरण बहुत हैं ... उनके व्यक्तित्व के विषय में जितना लिखा जाए कम है। आज मुरादाबाद के साहित्य के संरक्षण और देश विदेश में प्रसार करने की दिशा में जो कुछ भी मैं कर रहा हूं उस के प्रेरणा स्रोत स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी ही हैं। उन्हीं के कार्य को आगे और आगे बढ़ाने का प्रयास मैं कर रहा हूं इन्हीं शब्दों के साथ उन्हें शत-शत नमन.....

✍️डॉ मनोज रस्तोगी
 8,जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार फरहत अली ख़ान का आलेख ....."श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र: एक नायाब शख़्सियत"

 


स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के बारे में मैंने पहले भी सुन रखा था, जिस से मुझे इतना इल्म हुआ था कि उन के पास बहुत पुरानी पांडुलिपियाँ और किताबें मौजूद थीं। इस के अलावा उन के बारे में जो कुछ भी जाना वो आज इस आयोजन के ज़रिए जाना। मंच पर शोहरत उन्हें एक हास्य-कवि के रूप में मिली, मगर उन में एक गीतकार की तड़प मौजूद थी। इस की वज़ाहत उन की किताब 'कविता नियोजन' में लिखी भूमिका से होती है, साथ ही डॉ. प्रेमवती साहिबा के उन के बारे में लिखे संस्मरण से भी यही बात ज़ाहिर होती है। उन्होंने 'पवित्र पँवासा' खण्डकाव्य रचा जो उन्हें एक अहम कवि के तौर पर स्थापित करता है। राजीव सक्सेना जी के आलेख से पता चलता है कि अपने खण्डकाव्य में उन्हों ने मक़ामी इतिहास को ख़ास जगह दी, ये उन की शख़्सियत का एक और नायाब पहलू है, जो सामने आता है।उन्होंने 'शहीद मोती सिंह' नाम से एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा, जो उन्हें उपन्यासकार के तौर पर पहचान देता है और उन्हें वृन्दावन लाल वर्मा जी जैसे ऐतिहासिक उपन्यासकारों की सफ़ में ले आता है।

इतिहास को जुनून की हद तक जीने की ये उन की ललक ही थी, जिस ने उन्हें एक ख़ास रचनाकार के तौर पर सँवारा और उन से वो सब लिखवाया जो अमूमन नहीं लिखा जाता है।

इंसानी तहज़ीब से मुहब्बत और उसे जानने-खोजने की चाहत ही ने उन्हें एक महान पुरातत्ववेत्ता बनाया।हमें उन से ये सब कुछ सीखने, अपने अंदर उतारने और सहेज कर रखने की ज़रूरत है।

✍️ फ़रहत अली ख़ान,

लाजपत नगर

मुरादाबाद 244001

बुधवार, 19 जनवरी 2022

साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 13 से 15 जनवरी 2022 तक तीन दिवसीय ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन

  प्रख्यात पुरातत्ववेत्ता एवं साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 13 से 15 जनवरी 2022 को  तीन दिवसीय ऑन लाइन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। चर्चा में शामिल साहित्यकारों ने कहा कि मिश्र ने रुहेलखंड क्षेत्र के इतिहास को उजागर करने के साथ ही अनेक ऐसे अज्ञात साहित्यकारों की कृतियां खोजीं जो अतीत में दबी हुई थीं।

      मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ के तहत आयोजित इस कार्यक्रम में संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में 22 मई 1932 को जन्मे सुरेन्द्र मोहन मिश्र का प्रथम काव्य संग्रह मधुगान वर्ष 1951 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 1955 में उनके प्रकाशित दूसरे संग्रह 'कल्पना कामिनी' में श्रृंगार रस से भीगी रचनायें थीं। वर्ष 1982 में आपकी हास्य कविताओं का एक संग्रह कविता नियोजन' प्रकाश में आया । इसके अतिरिक्त वर्ष 1993 में बदायूं के रणबांकुरे राजपूत(इतिहास) ,वर्ष 1999 में हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह कवयित्री सम्मेलन, वर्ष 1997 में इतिहास के झरोखों से सम्भल (इतिहास) ,2001 में ऐतिहासिक उपन्यास शहीद मोती सिंह, वर्ष 2003 में मुरादाबाद जनपद के स्वतंत्रता संग्राम (काव्य),  मुरादाबाद व अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी(काव्य), पवित्र पंवासा (ऐतिहासिक खण्ड काव्य), मीरपुर के नवोपलब्ध कवि (शोध) तथा वर्ष 2008 में आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं (शोध) प्रकाशित हुईं । उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में हुआ।

       उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने बताया कि शाहजहांपुर के  स्वामी शुकदेवानंद महाविद्यालय में स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के नाम से संग्रहालय स्थापित है । इसके अतिरिक्त बरेली में पांचाल संग्रहालय और रामपुर रजा लाइब्रेरी में श्री मिश्र की पुरातात्विक धरोहर सुरक्षित है । उन्होंने मिश्र जी के अनेक प्रकाशित आलेख भी प्रस्तुत किये। 

प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा कि कीर्तिशेष पंडित सुरेंद्र मोहन मिश्र साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने एक गीतकार से अलग एक विशुद्ध हास्य कवि के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। एक पुरातत्वविद के रूप में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। प्रख्यात शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मिश्र जी की मिसाल एक समंदर से दी जा सकती है जिसकी गहराई में बहुत कुछ छुपा हुआ है मगर वो खामोश है। 

 केजीके महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा कि सुरेन्द्र मोहन मिश्र जीवन की  कटुताओं के बीच कवि हृदय को जीवित रखने में सफल हुए हैं  वे इतिहासकार हैं तो पुरातत्ववेत्ता भी ,उपन्यासकार हैं तो कविता की मधुरता से ओतप्रोत भी । उनके गीतों में प्रकृति इठलाती है, नर्तन करती है, हृदय में माधुर्य भी घोलती है।

      डॉ अजय अनुपम, अशोक विश्नोई, डॉ कृष्ण कुमार नाज, लव कुमार प्रणय (चन्दौसी),  डॉ मक्खन मुरादाबादी, राजीव प्रखर,श्री कृष्ण शुक्ल, डॉ प्रेमवती उपाध्याय ने संस्मरण प्रस्तुत कर स्मृतिशेष मिश्र के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला।

    कनाडा निवासी उनकी सुपुत्री प्रतिमा शर्मा ने कहा कि अपने ध्येय और जूनून  के लिए अपनी आरामदायक जीवन को परित्याग करने वाले, 18 साल की उम्र में अपना पहला काव्य ग्रन्थ लिखने वाले, 23 साल की उम्र में दुर्लभ पुरातत्त्व की वस्तुुओं का संग्रह और निजी पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना करने वाले मस्त, मलंग, पुरातत्ववेत्ता, कवि, लेखक और साहित्यकार थे।  

    मथुरा के प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) राजीव सक्सेना ने कहा  स्मृतिशेष मिश्र उन विरले हिन्दी साहित्यकारों में से है जिन्होंने स्थानीय इतिहास, विशेषकर जनपदीय इतिहास में काफी रुचि ली है।

 रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कि सुरेंद्र मोहन मिश्र  धुन के पक्के थे । कई -कई दिन तक पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं को खोजने में खपा देते थे और फिर उपेक्षित मिट्टी के टीलों, नदियों आदि से एक प्रकार से कहें तो अनमोल मोती ढूँढ कर लाते थे। 

दिल्ली के वरिष्ठ साहित्यकार आमोद कुमार ने कहा कि स्मृति शेष  सुरेन्द्र मोहन मिश्र मूल रूप से रागात्मक मधुरिम गीतों के गीतकार थे।

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने  उनके  बंद खिड़की और खामोशी एकांकी की चर्चा करते हुए कहा इसमें प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से एक नि:संतान दम्पत्ति के मनोभावों का सटीक प्रस्तुतिकरण बड़े ही कलात्मक ढंग से किया गया है।

      डॉ प्रीति हुंकार ने कहा कि उनकी रचनाओं में राष्ट्र की वन्दना ,प्रेम की पीड़ा ,संवेदना ,जीवन के विविध रूपों, ग्रामीण परिवेश प्रकृति का अद्भुत वर्णन के दर्शन होते हैं । 

डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि  स्मृतिशेष श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र साहित्य जगत के ध्रुव तारे के समान थे ,जिनका प्रकाश युगों -युगों तक आने वाली साहित्यिक पीढ़ी का मिलता रहेगा। 

फरहत अली खान ने कहा उन्होंने अज्ञात साहित्यकारों की कृतियां खोजीं और उन्हें एक ख़ास रचनाकार के तौर पर सँवारा ।  इंसानी तहज़ीब से मुहब्बत और उसे जानने-खोजने की चाहत ही ने उन्हें एक महान पुरातत्ववेत्ता बनाया। 

     विप्र वत्स शर्मा, डॉ इंदिरा रानी, दुष्यंत बाबा, अमितोष शर्मा ( दिल्ली), रंजना हरित (बिजनौर), वीरेंद्र सिंह बृजवासी, विवेक आहूजा, अशोक विद्रोही, आदर्श भटनागर, रेखा रानी (गजरौला), रमेश अधीर, मनोरमा शर्मा, तिलक राज आहूजा, डॉ प्रदीप शर्मा, त्यागी अशोक कृष्णम आदि ने विचार व्यक्त किये। आभार उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने व्यक्त किया । 







सोमवार, 17 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख ....

 


रामपुर प्रदर्शनी कवि सम्मेलन 1985 में मैंने श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र का काव्य पाठ सुना था ।  हास्य कविता की रचना तथा उसके द्वारा जनता को हंसा पाना अपने आप में आसान नहीं होता । इस क्षेत्र में जहां एक ओर काव्य- कौशल में निपुणता जरूरी होती है ,उससे भी बढ़कर कविता की प्रस्तुति मायने रखती है । सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के काव्य पाठ का अंदाज इस प्रकार का रहता था कि श्रोता बरबस उनकी कविता का आनंद उठाते थे और वाह-वाह किए बगैर नहीं रह पाते थे। लंबे समय तक एक हास्य कवि के रूप में सुरेंद्र मोहन मिश्र जी हिंदी के श्रोता-संसार में जाने जाते रहे। वास्तव में देखा जाए तो व्यक्ति की आंतरिक आनंदमय स्थितियां उसे किसी अन्य दिशा की ओर प्रेरित करती हैं, लेकिन संसार में रहते हुए उसे कोई दूसरा रास्ता ही पकड़ना पड़ जाता है । बाहर से केवल एक हास्य कवि दिखने वाला यह व्यक्ति भीतर से एक गंभीर शोधकर्ता तथा गीतकार था। शोधकर्ता भी कोई साधारण कोटि का नहीं। मन का मौजी । कई-कई दिन तक पुरानी वस्तुओं की खोज में जुटा रहने वाला और यह कहने का साहस रखने वाला कि पिताजी मैं तो सरस्वती का आराधक हूं ,मुझे धन से क्या लोभ ? उनकी पुस्तक "कविता नियोजन" की कविताएं पाठकों को हंसाने और गुदगुदाने में समर्थ तो है किंतु कवि द्वारा लिखित भूमिका ने भीतर तक हिला कर रख दिया । अपनी भूमिका में कवि ने लिखा है :- "मंच की सफलता पाने के लिए मैंने बहुत हल्की हास्य कविताएं भी लिखीं और एक दिन मैंने देखा कि मेरे अंदर का गीतकार धीरे-धीरे मर रहा है । आप विश्वास करें ,मैंने अपने उस गीतकार को यूं ही मरने दिया। जनता के ठहाके और देर तक गूंजने वाली हास्य ध्वनियों को आखिर कब तक मेरा कोमल गीतकार बर्दाश्त करता ! उसे मरना ही पड़ा ।" श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र मंच के सफल हास्य कवि थे लेकिन उनका उदाहरण हमें बताता है कि वह भीतर से कितने गंभीर सृजन के लिए समर्पित थे। श्रोताओं के मध्य एक हास्य कवि के रूप में उनकी सीमित छवि जो बन गई थी ,वह उससे कोसों दूर थे। मंच पर जिसे जिस रूप में बाजार स्वीकार कर लेता है ,वह उसी सांचे में ढल कर आगे बढ़ता रहता है किंतु इससे उसके मूल व्यक्तित्व का परिचय प्रायः पीछे छूट जाता है। सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के साथ भी यही हुआ । वह मूलतः हास्य कवि नहीं थे। अपनी अभिव्यक्ति क्षमता के कारण उन्हें इस रूप में मंच पर उतरना पड़ा । लेकिन इतिहास में उनकी भूमिका गंभीर गीतकार और समर्पित शोधकर्ता के रूप में ही सदैव स्मरण की जाएगी । रामपुर रजा लाइब्रेरी के दरबार हॉल में दिनांक 15 जनवरी 2022 शनिवार को स्मृति शेष श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र के पुरातात्विक संग्रह का अवलोकन करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ । रजा लाइब्रेरी का दरबार हॉल स्वयं में एक ऐतिहासिक धरोहर है । विशाल हॉल राजसी वैभव को प्रदर्शित करता है । और क्यों न करे ? यहीं पर रियासत के विलीनीकरण से पहले तक शाही दरबार लगा करता था । संभवतः जिस स्थान पर शासक का सिंहासन स्थित रहता होगा ,ठीक उसी स्थान पर सुरेंद्र मोहन मिश्र पुरातात्विक संग्रह काँच की एक प्रदर्शन-पेटिका में दर्शकों के अवलोकनार्थ रखा हुआ था। अधिकांश वस्तुएं ईसा पूर्व की हैं। यह आमतौर पर मिट्टी की बनी हुई है । सुरेंद्र मोहन मिश्र जी धुन के पक्के थे । कई -कई दिन तक पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं को खोजने में खपा देते थे और फिर उपेक्षित मिट्टी के टीलों, नदियों आदि से एक प्रकार से कहें तो अनमोल मोती ढूँढ कर लाते थे।  


✍️ रवि प्रकाश

बाजार सराफा

रामपुर,उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 16 जनवरी 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख.....सुरेन्द्र मोहन मिश्र का बहुआयामी व्यक्तित्व


अवशेषों और पुरातत्वों की खोज में ,यायावरों की भांति, अपनी संस्कृति और सभ्यताओं को सहेजने, सवांरने के लिए कोई यथार्थ का दामन थामे इतिहासकार तो हो सकता है, परन्तु कल्पना के पंख लगा प्रकृति के हास - उल्लास के गीत गाते,नवयौवन के मधुर कल्पना लोक में विचरते कवि  होना उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का परिचायक बन जाता है ,जहाँ इतिहासकार होना ,व्यक्तित्व के रूखेपन को दर्शाता है वहीं इतिहासकार होकर कवि के कवित्व को बनाये रखना सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी की कल्पनाशीलता जैसे सारी बातों का खण्डन कर रही हो । लेखक का हास्य रुप सबको दिखता है, परन्तु उस कठोर यथार्थ के भीतर बहते मीठे स्रोत को पहचानना हर किसी के वश में नहीं, लेकिन सुरेन्द्र मोहन जीवन की इन सारी कटुताओं के बीच कवि हृदय को जीवित रखने में सफल हुए हैं । वे इतिहासकार हैं तो पुरातत्ववेत्ता भी ,उपन्यासकार हैं तो कविता की मधुरता से ओतप्रोत भी ।उनके गीत मात्र हास भर नहीं है, उनके यहाँ प्रकृति इठलाती है, नर्तन करती है, हृदय में माधुर्य भी घोलती है--

दृग सम्मुख ये विशाल भूधर /ओढ़े है चांदी की चादर /**** झर-झर झरते शुचि निर्झर से / सरिता की लहरों के स्वर से /****** खग रव से मुझको गान मिला /मुझको मेरा उपहार मिला 

अल्पावस्था से ही उनको कविता का उपहार मिला समय के साथ वह प्रौढ़ होता चला गया। प्रेम और श्रृंगार के गीत रचते -रचते कवि कब सांसारिक दुखों से बोझिल हो नैराश्य से भर उठा --

  बनकर कितने स्वप्न मिटे हैं मेरे 

जल -जलकर कितने दीप बुझे हैं मेरे 

जग का ठुकराया प्यार तुम्हें मैं क्या दूँ

संसार के मिथ्या  प्रेम और आडम्बर से ऊबकर कवि कब लौकिक से पारलौकिक हो गया कि वह ईश्वर को प्रिय मान उन्हीं में अपने जीवन के सौंदर्य को तलाशने लगा --

 मेरे दुर्दिन में जब प्रियतम आते हैं 

नयनों में आ आंसू बन बह जाते हैं 

मेरे उर के कोमल छाले भी 

नभ के तारे बनकर मुस्काते हैं  

इस प्रकार जीवन के विविध रूपों को तलाशते हुए उदारमना कवि सुरेन्द्र मोहन जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं ,उनमें इतिहासकार की भांति खरा यथार्थ है तो कल्पनाशीलता भी । इतिहास की वीथिका में विचरते हुए उनका कवि मन कभी भी थकता नहीं है ,ऐसा एक विराटमना व्यक्ति अपने जीवन में निरंतर कालजयी रचनाओं के साथ हमारे बीच अपनी उपस्थिति बनाने में सफल हो सका है तो वे हैं सुरेंद्र मोहन मिश्र ,यहीं उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता भी है ---

 तेरे रंगीन विश्व में मुझे बहुत छला गया 

मिलन उम्मीद का विहग उड़ा कहीं चला गया 

सभी तो स्वार्थ में पले न बन सका कोई मेरा 

न जाने कौन विषमयी सुरा मुझे पिला गया 

अपने विविध आयामों में आभा बिखेरता वह महान व्यक्तित्व अपनी रचनाओं के साथ चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेगा  ।

✍️ डॉ मीरा कश्यप

अध्यक्ष हिंदी विभाग

के.जी.के. महाविद्यालय मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत


बुधवार, 12 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र का ऐतिहासिक उपन्यास - शहीद मोती सिंह। यह कृति वर्ष 2001 में प्रतिमा प्रकाशन , दीनदयाल नगर ,मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की गई थी। स्मृतिशेष मिश्र जी की यह कृति मुझे 30 अक्टूबर 2004 को दैनिक जागरण के तत्कालीन स्थानीय संपादक डॉ अनुपम मार्कण्डेय जी ने प्रदान की थी ।


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मंगलवार, 11 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार एवं पुरातत्ववेत्ता स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र का गीत -----मद भरे लोचन सिहरती रात....। यह गीत लिया गया है वर्ष 1980 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका विनायक से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---


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मुरादाबाद के साहित्यकार एवं पुरातत्ववेत्ता स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र का गीत -----मस्तक पर हिम किरीट आवरण, ....। यह गीत लिया गया है वर्ष 1977 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका विनायक से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---


 
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मुरादाबाद के साहित्यकार एवं पुरातत्ववेत्ता स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र का गीत ----- दीप खंडहरों के, सौ सौ खंडहरों के ...। यह गीत लिया गया है वर्ष 1976 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका विनायक से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---


 
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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की काव्य कृति - मुरादाबाद और अमरोहा के स्वतंत्रता - सेनानी। यह कृति वर्ष 2003 में प्रतिमा प्रकाशन , दीनदयाल नगर ,मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की गई थी। स्मृतिशेष मिश्र जी ने अपनी यह कृति मुझे तीन जून 2004 को प्रदान की थी ।



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बुधवार, 29 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की रचना --यहां भग्न मूर्ति का भाग हूं । यह रचना उन्होंने अपने दिल्ली प्रवास के दौरान लिखी थी । हमें यह रचना उपलब्ध कराई है उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने ।


मैं शिकारियों से घिरा हुआ, 

मैं थके हिरन सा डरा हुआ,

किसी राजधानी में खो गया,

मुझे क्या हुआ, मुझे क्या हुआ।


वहां लिख रहा था कहानियां,

वहां खोजता था निशानियां,

वहां कर रहा था खुदाइयां,

जहां ज्ञान-धन था दबा हुआ।


हैं पुरावशेष रखे जहां,

मृण्पात्र-शेष रखे जहां,

मुझे उस मकां का पता तो दो,

है बुतों से ही, जो सजा हुआ।


यह नया शहर भी अजीब है,

यहां हर शरीफ़ ग़रीब है,

यहां हर निगाह है अजनबी,

है सभी में ज़हर घुला हुआ।


वहां शब्द-शब्द का अर्थ था,

वहां शब्द-शब्द समर्थ था,

यहां आके सब ही भुला चुका,

वहां पुस्तकों का पढ़ा हुआ।


वहां मूर्ति थी किसी यक्ष की,

वहां यक्षिणी मेरे वक्ष थी,

यहां भग्न मूर्ति का भाग हूं,

ना जुड़ा हुआ, ना ढला हुआ।


वहां तितलियों को सुगंध दी,

वहां ज़िंदगी मेरी छंद थी,

यहां डाल-टूटा गुलाब हूं,

ना झरा हुआ, ना खिला हुआ।


वहां आंचलों ने सजा दिया,

यहां आंधियों ने हिला दिया,

मैं वो बदनसीब चिराग हूं,

ना धरा हुआ, ना जला हुआ।


✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र

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अतुल मिश्र

सुपुत्र स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र

चन्दौसी, जिला सम्भल

उत्तर प्रदेश, भारत


सोमवार, 27 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की प्रथम काव्य कृति -- मधुगान । इस कृति में उनके 37 गीत हैं । इस कृति का प्रकाशन श्री योगेन्द्र मोहन मिश्र, काव्य कुटीर चन्दौसी द्वारा वर्ष 1951 में हुआ । हमें यह दुर्लभ कृति उपलब्ध कराई है उनके सुपुत्र श्री अतुल मिश्र जी ने ।


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रविवार, 26 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की दुर्लभ गीति काव्य कृति -- कल्पना कामिनी । इस कृति में उनके वर्ष 1951-52 में लिखे 51 गीत हैं । इस कृति का प्रकाशन काव्य कुटीर चन्दौसी द्वारा वर्ष 1955 में हुआ । हमें यह कृति उपलब्ध कराई है उनके सुपुत्र श्री अतुल मिश्र जी ने ।


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मंगलवार, 23 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार, इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र की ऐतिहासिक कृति - 'बदायूं के रण-बांकुरे राजपूत' । उनकी यह कृति सौजन्या मिश्र, प्रतिमा प्रकाशन चंदौसी, उत्तर प्रदेश, भारत द्वारा वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई । इस कृति में श्री मिश्र ने कठेरिया, गहरवार, गौतम,गौर, चौहान, चंदेल, जंघारा, तोमर, भाटी, बड़गूजर, बाछिल,बैस, राष्ट्रकूट और मुस्लिम राजपूतों का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत कृति श्री मिश्र जी ने मुझे 4 जुलाई 1994 को भेंट की थी।


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सोमवार, 8 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र की ग़ज़ल --सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में, लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,


सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में,

लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,


क्या पड़ोस का कलुआ अब भी, पीकर जुआ खेलता है,

मंगलसूत्र बहू का गिरवीं, रख आता था दांव में।


क्या बच्चों की टोली अब भी, मुझे पूछने आती है,

मैं बंदी था, जिनकी मुस्कानों के सरल घिराव में।


बिन दहेज के कई लड़कियां, क्वांरी थीं उस टोले में,

लिखना, बिछुए झनक रहे हैं, अब किस-किसके पांव में।


कभी तलैया में कागज की नाव चलाया करता था,

अब ख़ुद ही दिल्ली में बैठा हूं कागज की नाव में।

(22 मार्च 1983) (दिल्ली-प्रवास)

✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र